हरिद्वार। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के योग विज्ञान विभाग द्वारा ‘समत्वं योग उच्यते’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार के समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 देवी प्रसाद त्रिपाठी ने कहा गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देने वाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है। गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।
मुख्य अतिथि प्रो0 कुमार रत्नम, मेम्बर सेक्रेट्री, आई.सी.पी.आर., नई दिल्ली ने कहा योग का अंतिम लक्ष्य व्यक्ति को स्वयं से ऊंचे उठा कर ज्ञानोदय की उच्चतम अवस्था प्राप्त करने में मदद करना हैं। जैसा कि भगवद् गीता में कहा गया है कि, व्यक्ति स्वयं से संयोग कर के, मन को पूरी तरह से अनुशासित कर सभी इच्छाओं से स्वतंत्र हो कर, जब केवल स्वयं में लीन हो जाता हैं, तभी उसे योगी माना जाता हैं।
विशिष्ट अतिथि एवं गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो0 दिनेश चन्द्र भट्ट ने कहा योग का अर्थ है सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों को वश में रखते हुए परमतत्त्व में मन को एकाग्र करना। भगवान् ही परमतत्त्व हैं ।भगवान स्वयं अर्जुन को युद्ध करने के लिए कह रहे हैं, अतः अर्जुन को युद्ध के फल से कोई सरोकार नहीं है। जय या पराजय कृष्ण के लिए विचारणीय हैं, अर्जुन को तो बस श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार कर्म करना है यही वास्तविक योग है।
मुख्य वक्ता डा0 ज्ञान शंकर सहाय (सेवानिवृत्त) रिसर्च आफिसर कैवल्यं ने कहा भगवद्गीता, २/४८ में भगवान कहते हैं:- योगस्थः कुरु कर्माणि, संग त्यक्त्वा धनंजय। सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा, समत्वं योग उच्यते॥ हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है। भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है। आई.सी.पी.आर., नई दिल्ली के डा0 सुशीम कुमार दुबे ने कहा कि योग का सच्चा सार हमारी जीवन शक्ति को ऊपर उठाने के आसपास घूमता हैं या फिर रीढ़ की हड्डी के पास स्थित ‘कुंडलिनी’ को जागृत करने में। इसे शारीरिक और मानसिक अभ्यासों की श्रृंखला के माध्यम से प्राप्त करना होता हैं। शारीरिक स्तर पर इस पद्धति में विभिन्न योग मुद्राएं या ‘आसन’ शामिल हैं, जिनका प्रमुख उद्देश्य शरीर को स्वस्थ रखना हैं। मानसिक तकनीक में मन को अनुशासित करने के लिए श्वसन व्यायाम या ‘प्राणायाम’ और मैडिटेशन या ‘ध्यान’ शामिल हैं।
योग विज्ञान विभाग के प्रो0 ईश्वर भारद्वाज ने कहा दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, ऐसा योगी स्थिर बुद्धि कहा जाता है। मन की मलिनता के नष्ट होते ही चित्त वृत्ति से मुक्ति पा जाती है, तब यह समन्वय की स्थिति में होती है। इसी स्थिति को गीता में श्रीकृष्ण योग मानते हैं। योग विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष डा0 राकेश गिरि ने कहा मन की मलिनता के नष्ट होते ही चित्त वृत्ति से मुक्ति पा जाती है, तब यह समन्वय की स्थिति में होती है। इसी स्थिति को गीता में श्रीकृष्ण योग मानते हैं- योगस्थ: कुरू कर्माणि सङ्गंत्यक्त्वा धनञ्जया, सिद्धसिद्धो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्चयते।। वे कहते हैं- हे धनंजय। तू आसक्ति को त्यागकर तथा जय और पराजय में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर 'समत्व' ही योग कहलाता है।
योग विज्ञान विभाग के डा0 सुरेन्द्र कुमार त्यागी ने सभी आगन्तुकों का परिचय कराया तथा उन्होंने कहा योग योग भारत की प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है। यह 5000 साल पुरानी परंपरा है। यह मन और शरीर की एकता, विचार और कार्य, संयम और पूर्ति, मनुष्य और प्रकृति के बीच सद्भाव, स्वास्थ्य और कल्याण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण हैं। यह सिर्फ व्यायाम के बारे में नहीं है बल्कि अपने आप, दुनिया और प्रकृति के साथ एक होना हैं। हमारी जीवन शैली में बदल कर और चेतना विकसित कर, यह तंदरूस्ती प्रदान करने में मदद कर सकता हैं। डा0 ऊधम सिंह ने वेबिनार का संचालन किया। इस अवसर पर डॉ सुयश भारद्वाज, पवन, हेमन्त सिंह नेगी सहित 400 प्रतिभागियों ने भाग लिया।